द्वादशवें ज्योतिर्लिंग के स्थान पर राजस्थान और महाराष्ट्र के अपने दावे, दोनों स्थानों पर उत्पत्ति की कहानी

द्वादशवें ज्योतिर्लिंग के स्थान पर राजस्थान और महाराष्ट्र के अपने दावे, दोनों स्थानों पर उत्पत्ति की कहानी


जयपुर। भगवान शिव के द्वादशवें ज्योतिर्लिंग का नाम ‘घुश्मेश्वर’ है। इन्हें ‘घृष्णेश्वर’ और ‘घुसृणेश्वर’ के नाम से भी जाना जाता है। इस ज्योतिर्लिंग के स्थान को लेकर कई दावे और आपत्तियां हैं। एक पक्ष इसे राजस्थान के शिवाड़ (सवाईमाधोपुर) स्थित शिवालय को द्वादश ज्योतिर्लिंग मानता है। वहीं, घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के दौलताबाद के बेरूलठ गांव के पास होने का दावा है। महाराष्ट्र के विशेषज्ञों कहना कि यह ज्योतिर्लिंग अजंता एवं एलोरा की गुफाओं के देवगिरी के समीप तड़ाग में है।


इंदौर की महारानी ने कराया था मंदिर जीर्णोद्धार
शिवमहापुराण में घुश्मेश्वर इस ज्योतिर्लिंग का वर्णन है। ज्योतिर्लिंग ‘घुश्मेश’ के समीप एक सरोवर भी है। इसे शिवालय के नाम से जाना जाता है। मंदिर जीर्णोद्धार 18वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई होलकर ने करवाया था। राजस्थान के शिवाड़ में द्वादशवें ज्योतिर्लिंग का दावा करने वालों का कहना है प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग ‘श्री घुश्मेश्वर’ ईसरदा के पास शिवाड़ में है। उनका कहना है कि शिवाड़ प्राचीन काल में शिवालय नाम से जाना जाता था जिसका उल्लेख शिवपुराण में ईश्वरद्वार के नाम से है।


12वें ज्योतिर्लिंग के लिए इन आधारों पर टिका है राजस्थान का दावा


1. शिवाड़ में द्वादशवे ज्योतिर्लिंग का दावा करते हुए लोगों का कहना है कि शिव पुराण कोटि रुद्र संहिता के अध्याय 32-33 के अनुसार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग शिवालय नामक स्थान पर होना चाहिए। घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग के दक्षिण में देवत्तव गुणों वाला देवगिरि पर्वत है। शिवाड़ स्थित ज्योतिर्लिंग मंदिर के दक्षिण में भी तीन श्रृंगों वाला देवगिरि नामक पर्वत है। किवदंती है महाशिवरात्रि पर एक पल के लिए सुवर्णमय हो जाता है। इसकी पुष्टि बणजारे की कथा में होती है। इसने देवगिरि से मिले स्वर्ण प्रसाद से ज्योतिर्लिंग की प्राचीरें व ऋणमुक्तेश्वर मंदिर बनवाया।


2. शिव पुराण कोटी रुद्र सहिंता अध्याय 33 अनुसार घुश्मेश्वर प्रादुर्भाव कथा में भगवान शिव ने घुश्मा को वरदान दिया था कि घुश्मे मैं तुम्हारे नाम से घुश्मेश्वर कहलाता हुआ यहां निवास करूंगा। सबके लिए सुखदायक होऊंगा। यह सरोवर शिवलिंगों का आलय हो जाए। उसकी तीनों लोगों मे शिवालय के नाम से प्रसिद्धि हो। यह सरोवर सदा दर्शन मात्र से ही अभिष्ठों का फल देने वाला हो जाए। जब 1837 ई. में ग्राम शिवाड़ स्थित सरोवर की खुदाई हुई तो यहां दो हजार शिवलिंग मिले जो इसके शिवलिंगों का आलय होने की पुष्टि करते हैं। इसके यहां के लोगों का तर्क है हमारे पक्ष में कई पुराणों और कथाओं में वर्णन मिलता है।


3. श्रीघुश्मेश्वर महात्म के अनुसार ज्योतिर्लिंग क्षेत्र शिवालय में एक योजन विस्तार में चारों दिशाओं में चार द्वार थे। इस आधार पर क्षेत्र के चार द्वार हैं... प्रथम: पूर्वी द्वार का नाम सर्वसर्पद्वार जो सारसोप गांव है। वहां भैरूंजी का स्थान भी है। दूसरा... उत्तरी द्वार वृषभद्वार था। यह अपभ्रंश आजकल बहड़ हो गया है। तीसराद्वार... नाट्यशाला था जो आज नटवाड़ा है। चौथा द्वार ‘ईश्वर द्वार होने की बात है जो आजकल ईसरदा है। इसके अलावा क्षेत्र की प्रमुख नदी वशिष्ठी का वर्णन है जिसका नाम आज बनास है। नदी के किनारे मंदार वन का उल्लेख है जो आजकल मंडावर गांव है। शिवपुराण महात्म्य में शिवालय के उत्तर-पश्चिम में सुररार नामक सरोवर का उल्लेख है आज वहां सिरस गांव बसा है। ईसरदा का प्राचीन इतिहास ज्ञात नहीं है। जनश्रुति के अनुसार महमूद गजनवी ने आक्रमण किया था। तत्कालीन शासक चद्रसेन पुत्रों सहित वीरगति को प्राप्त हुए। फिर मंडावर के राजा राजा शिववीर चौहान ने घुश्मेश्वर के प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। शिलालेख तथा गजनवी के आक्रमण में शहीद सेनापति रैवतजी का स्मारक मंदिर के पुरातन होने की पुष्टि करते हैं।


दोनों ज्योतिर्लिंग स्थापित होने की एक ही कथा


इस ज्योतिर्लिंग के बारे में पौराणिक कथा के अनुसार दक्षिण दिशा में स्थिति देवपर्वत पर सुधर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण अपनी धर्मपरायण सुंदर पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। कई वर्षों के बाद भी उनके कोई संतान नहीं हुई। लोगों के उलाहने सुन-सुनकर सुदेहा दुखी रहती थी। अंत में सुदेहा ने पति को मनाकर उसका विवाह अपनी बहन घुश्मा से करा दिया। घुश्मा भी शिव भगवान की अनन्य भक्त थी और भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। यद्यपि सुदेहा ने अपनी बहन से किसी प्रकार की ईष्र्या न करने का वचन दिया था परंतु ऐसा हो न सका। कुछ वर्ष बाद सुदेहा ने घुश्मा के सोते हुए पुत्र का वध करके शव को समीप के एक तालाब में फेंक दिया। सुबह हुई तो घर में कोहराम मच गया परंतु व्याकुल होते हुए भी धर्मपरायण घुश्मा ने शिव भक्ति नहीं छोड़ी। नित्य की भांति वह उसी तालाब पर गई। उसने सौ शिवलिंग बना कर उनकी पूजा की और फिर उनका विसर्जन किया। घुष्मा की भक्ति से शिव प्रसन्न हुए। जैसे ही वह पूजा करके घर की ओर मुड़ी त्यों ही उसे पुत्र खड़ा मिला। वह शिव-लीला से बेबाक रह गई क्योंकि शिव प्रकट हो चुके थे। अब वह त्रिशूल से सुदेहा का वध करने चले तो घुश्मा ने शिवजी से विनती करते हुए बहन सुदेहा का अपराध क्षमा करने को कहा। घुश्मा ने विनती की कि यदि वह उस पर प्रसन्न हैं तो वहीं पर निवास करें। भगवान शिव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और घुश्मेश नाम से ज्योतिर्लिंग के रूप में वहीं स्थापित हो गए।